Monday, June 9, 2014

शिवताण्डव स्तोत्रम् (श्रीरावणकृतं)


जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले गलेऽवलम्ब्यलम्बितां भुजङ्गतुङ्गमालिकाम् ।
डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयं चकार चण्डताण्डवं तनोतु न: शिव: शिवम् ॥ १ ॥
 
जटाकटाहसम्भ्रमभ्रमन्निलिम्पनिर्झरी- विलोलवीचिवल्लरीविराजमानमूर्धनि ।
धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके किशोरचन्द्रशेखरे रति: प्रतिक्षणं मम ॥ २ ॥
 
धराधरेन्द्रनन्दनीविलासबन्धुबन्धुर- स्फुरद्दिगन्तसन्ततिप्रमोदमानमानसे ।
कृपाकटाक्षधोरिणीनिरुद्धदुर्धरापदि क्वचिद्दिगम्बरे मनो विनोदमेतु वस्तुनि ॥ ३ ॥
 
जटाभुजङ्गपिङ्गलस्फुरत्फणामणिप्रभा- कदम्बकुङ्कुमद्रवप्रलिप्तदिग्वधूमुखे ।
मदान्धसिन्धुरस्फूरत्त्वगुत्तरीयमेदुरे मनोविनोदमद्भुतं बिभर्तु भूतभर्तरि ॥ ४ ॥
 
सहस्त्रलोचनप्रभृत्यशेषलेखशेखर- प्रसूनधूलिधोरिणीविधूसराङघ्रिपीठभू: ।
भुजङ्गराजमालया निबद्धजाटजूटक: श्रियै चिराय जायतां चकोरबन्धुशेखर: ॥ ५ ॥
 
ललाटचत्वरज्वलद्धनञ्जयस्फुलिङ्गभा- निपीतपञ्चसायकं नमन्नीलिम्पनायम् ।
सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं महाकपालि सम्पदे शिरो जटालमस्तु न: ॥ ६ ॥
 
करालभालपट्टिकाद्धगद्धगज्ज्वल- द्धनञ्जयाहुतीकृतप्रचण्डपञ्चसायके ।
धराधरेन्द्रनन्दनीकुचाग्रचित्रपत्रक- प्रकल्पनैकशिल्पिनी त्रिलोचने रतिर्मम ॥ ७ ॥
 
नवीनमेघमण्डलीनिरुद्धदुर्धरस्फुर- त्कुहूनिशीथिनीतम:प्रबन्धबद्धकन्धर: ।
निलिम्पनिर्झरीधरस्तनोतु कृत्तिसिन्धुर: कलानिधानबन्धुर: श्रियं जगदधुरन्धर: ॥ ८ ॥
 
प्रफुल्लनीलपंकजप्रपञ्चकालिमप्रभा- वलम्बिकण्ठकन्दलीरूचिप्रबद्धकन्धरम् ।
स्मरच्छिदं पुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदं गजच्छिदान्धकच्छिदं तमन्तकच्छिदं भजे ॥ ९ ॥
 
अखर्वसर्वमङ्गलाकलाकदम्बमञ्जरी- रसप्रवाहमाधुरीविजृम्भणामधुव्रतम ।
स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं गजान्तकान्धकान्तकं तमन्तकान्तकं भजे ॥ १० ॥
 
जयत्वदभ्रविभ्रमभ्रमद्भुजङ्गमश्वस- द्विनिर्गमत्क्रमस्फुरत्करालभालहव्यवाट् ।
धिमिद्धिमिद्धिमिद्ध्वनन्मृदङ्गतुङ्गमङ्गल- ध्वनिक्रमप्रवर्तितप्रचण्डताण्डव: शिव: ॥ ११ ॥
 
दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजङ्गमौक्तिकस्त्रजो- र्गरिष्ठरत्नलोष्ठयो: सुह्यद्विपक्षपक्षयो: ।
तृणारविन्दचक्षुषो: प्रजामहीमहेन्द्रयो: समप्रवृत्तिक: कदा सदाशिवं भजाम्यहम् ॥ १२ ॥
 
कदा निलिम्पनिर्झरीनिकुञ्जकोटरे वसन् विमुक्तदुर्मति: सदा शिर:स्थमञ्जलिं वहन् ।
विलोललोललोचनो ललामभाललग्नक: शिवेति मन्त्रमुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम् ॥ १३ ॥
 
इमं हि नित्यमेवमुक्तमुत्तमोत्तमं स्तवं पठन स्मरन् ब्रुवन्नरो विशुद्धिमेति सन्ततम् ।
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथा गतिं विमोहनं हि देहिनां सुशङ्करस्य चिन्तनम् ॥ १४ ॥
 
पूजावसानसमये दशवक्त्रगीतं य: शम्भुपूजनपरं पठति प्रदोषे ।
तस्य स्थिरां रथगजेन्द्रतुङ्गयुक्तां लक्ष्मीं सदैव सुमुखीं प्रददाती शम्भु: ॥ १५ ॥
 

 

॥ इति श्रीरावणकृतं शिवताण्डवस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

                          

                           करचरणकृतं वाक्कायजं कर्मजं वा श्रवणनयनजं वा मानसं वापराधम् ।

                        विहितमविहितं वा सर्वमेतत् क्षमस्व जय जय करुणाब्धे श्रीमहादेव शम्भो ॥